आमवात : एक जटिल दुः साध्य रोग
Author: Dr.Milind Kumavat
M.D.Ayurveda
आमवात एक बडा जटिल दुः साध्य रोग है । चिकित्सा , रोगी और उसकी परिचर्या यह तींनो की परीक्षा ले लेता है । सामान्यतः जन सामान्य इसे गाठिया , गाउट,संधिवात ,आर्थराइटिस ,आमवात रुमेटीज्म आदी नामो से जानते है । पर यह इस रोग का सही नामकरण नहीं है । आमवात को आधुनिक भाषा में रुमॅटिक आर्थराइट्स कहना चाहिए ।इसका अर्थ हिंदी मेंजिस रोग में आमदोष के कारण वात प्रकृपित हो ,संधियो को प्रभावित करता हो तीव्र पीडा और वेदनायुक्त वह रोग कहना चाहिए । आईये पहले 'आम ' को जान ले ताकी इस रोग को समज सके ।
आम अथवा आमदोष :-
अनपचा या अधपचा अन्नरस , त्याज्यमलो का शरीर में संचय तथा वायू , पित्त , कफ आदी दोषो कि सर्वप्रथम दुष्टी ( दूषित होना ) ।आम प्राय पाचक रसो कि न्यूनता जठराग्नी कीदुर्बलता या मंदाग्नी से उत्पन्न होता है पर आयुर्वेद कि भूताग्नियो ( पृथ्वी , जल , आकाश , तेज , वायू आदी महाभूतो कि आग ) तथा धात्वाग्नियो ( रस , रक्त , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा ,वीर्य आदी सप्त धातुओ कि अग्नी ) के चया पचय में विकृतीयो से भी बन सक्ता है । परंतु जाठराग्नि कि मंदता नब्बे प्रतिशत से अधिक जगह आम निर्माण , संग्रह और रोगोप्तादक में कारण होती है । आयुर्वेद चिकित्सा में सारा जोर ही पाचन तंत्र को दुरुस्त करने पर दिया जाता है । आयुर्वेद के आठ अंगो का तिसरा अंग काय चिकित्सा है । काय का अर्थ शरीर नहोकर जठराग्नी है । वही वैद्य सच्चा चिकित्सक है जो मंदाग्नि को बढाकर सम कर सके व तीक्ष्णाग्नी को घटा सके । जाठराग्नी कि दुर्बलता से खाया गया अन्न अधपच या कच्चा रहकरशरीर में आमाशय तथा छोटी बडी आंतो में संचित होकर रसादि सांतो धातुओ में विकार उप्तन्न करता है ।आमयुक्त रक्त पुरे शरीर में विचरण कर शरीर के रोम रोम को प्रभावितकरता है । ऐलोपैथी में इसका परीक्षण आर . ए . टेस्ट में रक्त के पाजिटिवनिगेटिव होने से होता है ।वैद्य अपने अनुभव व रोगो लक्षणो इसे जांच लेते है ।
आमदोष क्यों उत्पन्न होता है :-
अति भोजन ,भारी व स्निग्ध भोजन , पहला भोजन पचा नहीं हो उससे पूर्व हि फिर खाना , बार बार कुछ न कुछ खाते रेहना , ठोस आहार ( रोटी , मिठाई , नमकीन आदी ) से पेटठसाठस भरने के बाद उपर से प्रचुर मात्रा में तरल आहार जैसे आजकल विवाहो , दावतो , पिकनिको आदी में होता है तो व्यक्ती के आमाशय में वात , पित्त , कफ ,तींनो दोषो काएकसाथ प्रकोप होता है ।अपक्व भोजन के साथ कुपित दोष अवरुद्ध हो जाते है तो आम निर्मित हो संग्रह हो जाता है , स्वाभाविक मार्गो से बहार नहीं आता । आमयुक्त वायू शूल ,आफना ,पेट फुल जाना , अंगमर्द (हडफुट्न ) , मुंह सुकना , मूर्च्छा ,चक्कर , विषमाग्नि , पीट, कमर तथा पसलीयो में दर्द ,सिराओ में सिकुडन और स्लब्धता , पित्त दोषज्वर , अतिसार ,शरीर में जलन , प्यास , नशा जैसी अनुभूती , भ्रम तथा प्रलाप तथा प्रकृपित कफ - वमन, अरुचि अपचन ,शीतज्वर , आलस्य ,शरीर भारी होना लक्षण उत्पन्न करता है ।अधिक आहारके अलावा गुरु (भारी) रुक्ष (खुशक घी तेल आदि रहित ), शीत , शुष्क , अप्रिय ,पेट में गुम हो जाने वाला ,जलन पैदा करने वाला गंदा (अपवित्र ) विरूद्धाहार ,असमय भोजन , जैसेशारीरिक काम ,क्रोध , लोभ मोह ,ईशा ,द्वेष ,लज्जा ,शौक ,गर्व उद्वेग (उदासीनता या व्यग्रता , भय ) आदि से संतप्त मन भी आम उप्तादक कारण है ।भोजन संबंधी सभी उपरोक्तविकारो से उप्तन्न करता है । इनमे जहाँ आमदोष में विकृत होने वाली प्रथम धातू रस पाचन के रोग उप्तन्न करता है । द्वितीय धातु रक्त को दूषित कर आमदोष सर्वांग में पीडा देनेवाले रोग उप्तन्न करता है ।
आमवात निदान :-
प्राचीन आयुर्वेदज्ञ इस रोग कि भयावहता से पूर्ण परिचित थे । आम का समूल उन्मूलन करना अत्यंत दुष्कर कार्य है वे कहते है "विरूद्धाहासवेष्टस्य मंदाग्ने निश्चल स्यच । स्निग्धमुक्तवत्त्तोह्यभं व्यायाम कुर्वत स्तथा ।। वायना प्रेरितो ह्याम: श्लेष्म स्थानं प्राधावती । तेनात्यतो विदध्गेसौ धमनी प्रति प्रतिपद्यते ।। वात पित्त कफै र्भूयो दूषित :सो न्नजो रस :। स्रोतस्य भिष्यन्दयती नानावर्नोती पिच्छिल : ।। जनयत्याशुदौर्बल्य गौरव हृदयस्य च । व्याधीना माश्रयोह्येष आमसज्ञो तिदारुन : इन श्लोको में आम कि परिभाषा तथा आम कैसे बनते है ये बताया है जो हम उपर लिख चुके है ।माधव निदान के विद्वान आचार्य ने इस संबंध में आगे बताया है कि जहाँ एक साथ त्रिक तथा अन्य बडी संधिया प्रकुपित हो शरीर स्थब्ध ( जकडा हुआ -निश्चल -चलने फिरने में असमर्थ ) कर दे उसे आमवात कहते है । अर्थात इस रोग मे कमर व कुल्हे के जोड, कंधे ,घुटने ,कोहनिया ,ठखने आदी सभी जोड जखडन में आते है ।रोगी को शरीर में टुटन ,भोजन में अरुची ,प्यास ,आलस्य ,थकान , ज्वर ,भारिपन ,भोजन न पचना ,अंगो में शून्यता प्रमुख रूप में लक्षण महसूस होते है । फीर जब वायू का प्रकोप बहुत बढ जाता है तो रोगी के हाथ ,पांव ,टखने व हाथ के पंजे ,सिर (कधे और गर्दन ) त्रिक (नितंब ) और जांघो कि संधियो में पीडा और सुजन आ जाती है । मंदाग्नि मुख से पानी आना , अरूच ,शरिर मे खूप भारीपन , उत्साह नष्ट हो जाना ,बहुमूत्र ,शरीर व जोडो में जलन ,जडता ,आंतो में गुडगुडहट ,आफरा तथा बिच्छूओ के डँको जैसी दारुण वेदना शरीर में होने लगती है ।स्वाभाविक ही अनिद्रा और अंगुली तक हिलाना मुश्किल हो जाता है ।जब रोग पित्त प्रधान तब शरीर में जलन , जोडो में ललाई तथा हवा लंगने पर भी दर्द होता है , कफ प्रदान होने पर भारिपन , खुजली , शरीर गिला लगना तथा चिपचिपहाट महसूस होती है ।वात तो आमवात में शुरु से हि सभी पिडाओ का कारण है । जब केवल एक दोष आधारित हो तो साध्य , दो दोषो युक्त हो प्याय (दवा प्रयोग रहते राहत ) तथा त्रिदोष जहाँ हो तो सारी देह के सभी छोटे बडे जोडो व संधियो में शोथ आ जाती है वह अत्यंत कठिनता से ठीक होता है ।
2 Comments
Nice informatio
ReplyDeletethank you very much
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