
कैन्सर और ग्रन्थि- Cancer In Ayurveda
गर्भावस्था से मृत्यु तक मनुष्य के शरीर के प्रत्येक अंग में , जिसमे रक्त भी शामिल है , कोशिकाओ का निरंतर निर्माण तथा विनाश होता रहता है । अशक्त एवं बेकार कोशिकाए समाप्त हो जाती है और उनके स्थान पर नई कोशिकाए जन्म लेकर शरीर के विकास और स्वास्थ्य को बनाये रखती है ।
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गर्भावस्था से मृत्यु तक मनुष्य के शरीर के प्रत्येक अंग में , जिसमे रक्त भी शामिल है , कोशिकाओ का निरंतर निर्माण तथा विनाश होता रहता है । अशक्त एवं बेकार कोशिकाए समाप्त हो जाती है और उनके स्थान पर नई कोशिकाए जन्म लेकर शरीर के विकास और स्वास्थ्य को बनाये रखती है । जीवन के प्रारंभिक वर्षो में कोशिकाओ का निर्माण या जन्म तेजी से होता है । आयु बढने के साथ साथ शरीर अपने इस धर्म से धीरे धीरे च्युत होणे लगता है और कोशीकाओ कि गती धीमी होणे लगती है ।। प्रकृती ने शरीर तंत्र का निर्माण कुछ इस ढंग से किया है कि शरीर के किसी अंग - विशेष में एक प्रकार की कोशिकाओ का विनाश होने लगता है तो शरीर का वही अंग उसी प्रकार की कोशिकाओ का निर्माण कर लेता । अंग विशेष को जितनी कोशिकाओ का की आवश्यकता होती है , शरीर उतनी ही कोशिकाओ का निर्माण करके इनका उत्पादन रोक देता है । यदि आवश्यकता की पूर्ती के बाद भी निर्माण बंद नहीं होता तो असे कैन्सर की संज्ञा दी जा सकती है ।
यहां यह बात समझनी आवश्यक है कि कोशिका ( cell ) का जननं कोशिका के विभाजन (division of cell ) के फलस्वरूप होता है । अर्थात एक कोशिका दुसरी कोशिका का निर्माण करती है और नई जन्मी कोशिका मूल कोशिका की हुबहू प्रतिकृती होती है अगर नई कोशिका मूल कोशिका के हुबहू प्रतिकृती के रूप में जन्म नहीं लेती , तब भी कैन्सर हो सकता है । अधिकतर कैन्सर का बनना एक बार आरंभ होकर तब तक नहीं रुकता जब तक उसका उपचार न किया जाय या रोगी की मृत्यू न हो जाए ।कैन्सर से ग्रस्थ या कैन्सर कोशिकाए ( cancer - cell ) कालांतर में अपने मूलस्थल से रक्त या लसिका द्वारा शरीर के अन्य हिस्सो में भी पहुचकर कैन्सर का निर्माण कराती है । इस प्रकार की प्रक्रिया को विक्षेप ( Metastasis ) कहते है ।
आयुर्वेदीय दृष्टिकोण -
गात्रप्रदेशे क्वचिदेव दोषा समुर्च्छिता मांसमभिप्रदुश्य ।
वृत्त स्थिर मंदरुजमहान्तमनल्पमुलं चिरवृदध्यपाकम ।।
कुर्वन्ति मांसोपचय तु शोफ तदर्बुद शास्त्रविदो वदन्ति ।
शरीर के किसी भाग में वातादि दोष कुपित होकार मांस एवं रक्त को दूषित कर गोल , स्थायी , थोडी पीडायुक्त , बडा , बडे मुलवाला , चीर ( वर्षो से ) बढणे वाला , कदापि न पकने वाला एवं अत्यंत गहरे मुलवाला मांसपिंड कर देते है इन्हे शास्त्रवेत्ता विद्वान ' अर्बुद या रसौली , कहते है ।
इस प्रकार से आयुर्वेद में कैन्सर (cancer ) को कर्क या कर्कट रोग (कर्कटार्बुद ) की संज्ञा दी गई है और महर्षी सुश्रुत ने इस प्रकार से अपने ग्रंथो में इस रोग के सम्बन्ध में व्यापक वर्णन किया है । सारांश में प्राचीन ग्रंथो में कैन्सर के उपचार के लिए आग में गर्म की गई लाल सलाखो से कैन्सर (cancer ) के जला देने की सलाह तत्कालीन चिकित्सको को दी गई थी । इन्ही सलाखो से कैन्सर के उपचार की सुधरी हुई आधुनिक विधि को हम बिजली की कौटरी (Electric cautry ) कह सकते है । जिसके द्वारा कैन्सर को निर्मूल कर दिया जाता है ।
अतः उपरोक्त प्रमाणो से यह स्पष्ट है की कैन्सर उत्पत्ती का इतिहास अति प्राचीन है ।मानव जाति के अतिरिक्त कॅन्सर के अतिक्रमण के प्रमाण जानवरो , जलचरो जैसे मच्छलीयो तथा पेड पौधे में भी मिलते है ।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्रीयो के मतानुसार कैन्सर तथा उसके समस्त लक्षणो से युक्त रोगो का वर्णन ग्रीस की पुस्तको में मिलता है । कैन्सर की चिकित्सा के अंतर्गत १) बी ० सी ० में ग्रीक के शुल्य सर्जन लियोनीदास ( Greek Surgeon leionidas ) ने चाकू की सहायता से स्तन के कैन्सर का ऑपरेशन किया था । तदुपरांत उसको अग्नि से तप्त किये हुए लाल गर्म लोहे की शलाका से जलाकर प्रदाहन ( Cauterize ) किया था । इसी प्रकार २००० ए ० डी ० में रोम के प्रसिद्ध कायचिकित्सक गैलेन ( Galan ) ने कैन्सर के लक्षणो के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि कैन्सर कि उत्पत्ती मनुष्य के रक्त में काले पित्त के अत्याधिक स्त्राव के कारण होती है । इस सिद्धान्त को मध्यकालीन समस्त काय - चिकित्साकोने स्वीकार किया । जिसको १९ वि शताब्दी तक कैन्सर की उत्पत्ती का एक प्रमाणित आधार माना गया ।
अस्तु , उपरोक्त आधारो से यह स्पष्ट है कि अर्वाचीन चिकित्सक शास्त्रीयो के मतानुसार भी कैन्सर की उत्पत्ती काफी प्राचीन है और अनादिकाल से समस्त जीवित प्राणी इससे ग्रस्त होते चले आ रहे है ।
ग्रन्थि - ग्रन्थि का वर्णन सुश्रुत निदान स्थान अध्याय ११ में किया गया है -
वातादयो मांसमर्सुक् च दुष्टाःसन्दुष्यमेदश्च कफ़ानुविद्धम |
वृत्तोन्नतं विग्रथितं तु शोफ़ कुर्वन्त्त्यतो ग्रन्थिरीति प्रदिष्टः ||
सु ० नि ० ११/३
दूषित हुए वातादि दोष मांस , रक्त , कफ और मेदोधातू को दूषित करके गोल , उंची उठी हुई , गांठदार शोफ उत्पन्न करते है , अतः इसका ग्रन्थि एसा नाम रखा है ।
प्रकार - इसके ४ प्रकार बतायें गये है -
१ वातिक ग्रन्थि -
यह ग्रन्थि खिंचकर लंबी सी होती है , पीडा देती है , सुई सी चुभती है , कर्तन या छेदन सी तथा भेदन को प्राप्त होती है एवं वर्ण में काली , स्पर्श में कडी तथा द्रव सी भारी बस्ती ( मशक ) के समान तनी हुई होती है तथा फुटणे पर स्वच्छ स्त्राव बहाती है ।२ पैत्तिक ग्रन्थि -
अत्यंत दाह करती है , धुआ स निकालती है , पकती है , जलती हुई सी प्रतीत होती है एवं वर्ण लाल एवं पिला होता है तथा फुटणे पर उष्ण स्त्राव बहाती है ।
३ कफज ग्रन्थि -
स्पर्श में शीत , अल्प वेदनावली , अधिक कण्डूयुक्त , पाषाण के समान कडी तथा देर से बढने वाली होती है एवं फुटणे पर श्वेत और गाढा पूय बहाती है ।
४ मेदोग्रन्थि -
शरीर के वृद्धी के साथ बढती है तथा शरीर के क्षय के साथ घटती है , आकार में महान , मन्द वेदनायुक्त , अधिक कण्डू वाली होती है । इसके फुटणे पर घी के समान मेद बाहर आता है ।